EDITORIAL-8: स्वाद केवल जीभ का अनुभव नहीं, आत्मा का दर्पण है। मीठा–कड़वा बाहर नहीं, भीतर भी बसता है। जब स्वाद ज़मीर से टकराता है, तब तय होता है कि हम सिर्फ खाते हैं या जीवन का आस्वाद लेते हैं।
1. स्वाद—जीभ की सीमा से परे
स्वाद (Taste) को अक्सर एक साधारण शारीरिक अनुभूति माना जाता है—मीठा, खट्टा, नमकीन, कड़वा और उमामी (Umami)। लेकिन वास्तव में, स्वाद इन पाँच या छह संवेदनाओं की सीमा से कहीं अधिक है। यह एक जटिल अनुभव है जो कई तत्वों से मिलकर बनता है: गहरी सुगंध, भोजन की बनावट, उसका तापमान, और सबसे महत्वपूर्ण, यादें और संस्कृति। जब हम किसी पकवान का स्वाद लेते हैं, तो हम केवल रसायन नहीं चख रहे होते; हम अपनी माँ के हाथ का स्पर्श, किसी त्यौहार की खुशी, या किसी दूर की यात्रा की कहानी चख रहे होते हैं। स्वाद केवल एक जैविक क्रिया नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक और भावनात्मक पुल है।
🤔 उपभोक्ता संस्कृति का हमला
आज के दौर में, स्वाद को उपभोक्ता संस्कृति (Consumerism) और सोशल मीडिया ने विकृत कर दिया है। स्वाद अब संतुष्टि का स्रोत कम और एक स्टेटस सिंबल अधिक बन गया है। “Instagrammable food” की दौड़ में, भोजन का ध्यान उसके वास्तविक स्वाद और पोषण से हटकर केवल विज़ुअल अपील पर केंद्रित हो गया है। इस दिखावे की संस्कृति ने पारंपरिक और धीमी गति से बनने वाले स्वादों के सांस्कृतिक मूल्य को कम कर दिया है। हम खाने को महसूस करने के बजाय, उसे प्रदर्शित करने में व्यस्त हैं, जिससे स्वाद का असली और गहरा अनुभव कहीं खो गया है।
* सवाल: “क्या हम वास्तव में स्वाद ले रहे हैं, या हम सिर्फ़ मार्केटिंग और दिखावे का स्वाद चख रहे हैं?”
2. 🧠 स्वाद का विज्ञान और भावना- ‘स्वाद’ (Taste) और ‘स्वाद और सुगंध’ (Flavour) दो अलग-अलग चीजें हैं। स्वाद (Taste) केवल हमारी जीभ पर मौजूद स्वाद कलिकाओं (Taste Buds) द्वारा महसूस की जाने वाली पाँच बुनियादी संवेदनाएँ हैं—मीठा, खट्टा, नमकीन, कड़वा और उमामी।
इसके विपरीत, स्वाद और सुगंध (Flavour) एक समग्र अनुभव है। यह 80% हमारी गंध (Smell) से आता है, साथ ही इसमें भोजन की बनावट (Texture) और तापमान भी शामिल होता है। जब हम कोई चीज खाते हैं, तो ये सभी संकेत एक साथ मस्तिष्क के संवेदी प्रांतस्था (Sensory Cortex) और लिम्बिक सिस्टम (Limbic System) तक पहुँचते हैं। लिम्बिक सिस्टम, जो हमारी भावनाओं और यादों को नियंत्रित करता है, इन संकेतों को प्रोसेस करता है। यही कारण है कि बचपन का कोई विशेष भोजन चखते ही मस्तिष्क तुरंत उस पल और उससे जुड़ी भावनाओं को फिर से जीवंत कर देता है—यह वैज्ञानिक रूप से सिद्ध है कि स्वाद हमारी भावनात्मक स्मृति का सबसे शक्तिशाली ट्रिगर है।
🫂 मनोविज्ञान और यादें: भावनात्मक ट्रिगर- स्वाद एक अत्यंत शक्तिशाली भावनात्मक ट्रिगर (Emotional Trigger) के रूप में कार्य करता है क्योंकि यह हमारे मस्तिष्क के लिम्बिक सिस्टम से सीधा जुड़ा होता है। यह वह क्षेत्र है जो भावनाओं और दीर्घकालिक यादों को नियंत्रित करता है। जब कोई विशेष पकवान हमारी जीभ को छूता है, तो गंध और स्वाद के संकेत तुरंत इस प्रणाली को सक्रिय कर देते हैं।
यही कारण है कि हमारी दादी के घर की खीर या किसी खास छुट्टी का भोजन चखते ही मस्तिष्क तुरंत उस पल, उस जगह और उस व्यक्ति की यादें और भावनाएँ ताज़ा कर देता है। स्वाद, इसलिए, केवल एक जैविक क्रिया नहीं, बल्कि स्मृति और प्रेम को संग्रहित करने का एक अदृश्य संग्रहालय है।
🍭 स्वाद का एडिक्शन: खाद्य उद्योग ने मुनाफ़ा बढ़ाने के लिए स्वाद के विज्ञान का घातक इस्तेमाल किया है। उन्होंने जानबूझकर ऐसे ‘हाइपर-पैलेटेबल’ (Hyper-palatable) भोजन बनाए हैं जिनमें मीठा, नमकीन और फैट (वसा) का मिश्रण एक विशिष्ट अनुपात में होता है—जिसे ‘ब्लिस पॉइंट’ (Bliss Point) कहा जाता है।
यह मिश्रण हमारे मस्तिष्क के रिवॉर्ड सेंटर को तेज़ी से सक्रिय करता है, ठीक वैसे ही जैसे कोई नशा। इस प्रक्रिया से उपभोक्ता इन उत्पादों के आदी (Addicted) हो जाते हैं, जिससे उनकी बार-बार खपत सुनिश्चित होती है। इस व्यापारिक रणनीति में, उपभोक्ताओं के स्वास्थ्य को पूरी तरह से नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है, जिसके परिणामस्वरूप मोटापा और जीवनशैली से जुड़ी बीमारियों में वृद्धि होती है।
3. 🌍 स्वाद का मानकीकरण: वैश्वीकरण का दुष्प्रभाव – वैश्वीकरण (Globalization) ने हमारे स्वाद पर गहरा और अक्सर हानिकारक प्रभाव डाला है। इसने क्षेत्रीय और पारंपरिक स्वादों को तेज़ी से मानकीकृत (Standardized) कर दिया है। आज दुनिया के किसी भी कोने में चले जाएं, आपको फास्ट फूड चेन में ‘एक जैसा स्वाद’ मिलेगा—वही मीठा, वही नमकीन, और वही कृत्रिम सुगंध।
इसका कारण सरल है: वैश्विक खाद्य कंपनियाँ बड़े पैमाने पर उत्पादन करती हैं। स्थिरता, कम लागत और व्यापक स्वीकृति सुनिश्चित करने के लिए, उन्हें पारंपरिक मसालों, स्थानीय सामग्री और मौसम की निर्भरता को हटाना पड़ता है। परिणाम यह होता है कि स्थानीय विविधता (Local Diversity) नष्ट हो जाती है और हमें स्वाद का एक नीरस और एकरूप (Homogeneous) संस्करण परोसा जाता है। यह मानकीकरण न केवल हमारी संस्कृति को कमज़ोर करता है, बल्कि भोजन की मौलिक पहचान और प्रामाणिकता (Authenticity) को भी छीन लेता है।
🤳 दिखावे का स्वाद: कैमरे की प्राथमिकता
आजकल, स्वाद का अनुभव एक प्रदर्शन (Performance) बन गया है, जिसे हम ‘स्वाद का दिखावा’ (Performative Taste) कह सकते हैं। सोशल मीडिया, खासकर इंस्टाग्राम के कारण, लोग अब भोजन का आनंद लेने के बजाय, उसे तुरंत सर्वोत्तम कोण से फ़ोटो खींचकर साझा करने को प्राथमिकता देते हैं। पकवान का रंग, उसकी साज-सज्जा और प्रस्तुति (Visual Presentation) उसके असली स्वाद से कहीं अधिक मायने रखने लगी है।
रेस्टोरेंट भी इस प्रवृत्ति को समझते हैं और ऐसे व्यंजन परोसते हैं जो कैमरे के लिए अच्छे हों, भले ही उनका स्वाद औसत हो। इस प्रक्रिया में, भोजन की मेज पर होने वाला सामुदायिक और भावनात्मक जुड़ाव समाप्त हो जाता है। स्वाद का वास्तविक और अंतरंग अनुभव, जो खाने वाले और भोजन के बीच होता है, अब केवल एक विज़ुअल प्रस्तुति बनकर रह गया है, जिसका उद्देश्य लाइक और कमेंट बटोरना है, न कि आत्मिक संतुष्टि।
📉 पाक कला का ह्रास: इंस्टेंट कल्चर का प्रहार
इंस्टेंट फ़ूड कल्चर ने पाक कला के पारंपरिक ज्ञान को गंभीर रूप से कमज़ोर किया है। यह सुविधा-केंद्रित संस्कृति लोगों से धैर्य और मेहनत की माँग नहीं करती। पारंपरिक स्वाद, जो पीढ़ियों के ज्ञान (जैसे सही मसाला अनुपात, धीमी आँच पर पकाने की कला) और सामग्री को समझने से आता था, अब अप्रासंगिक हो गया है।
जब भोजन मिनटों में माइक्रोवेव में तैयार हो जाता है, तो लोग जटिल और समय लेने वाली विधियों को सीखना छोड़ देते हैं। इससे हमारी पाक कला की विरासत का ह्रास होता है। परिणाम यह होता है कि हम स्वादों के असली स्रोत और उनके पीछे के विज्ञान को भूलकर, केवल कृत्रिम एडिटिव्स पर निर्भर रहने लगते हैं।
4. ⚖️ स्वाद और सामाजिक न्याय: कौन कर रहा है असली स्वाद का उपभोग?
स्वाद के उपभोग में एक गंभीर आर्थिक असमानता मौजूद है। बाजार में, ‘असुरक्षित’ और अत्यधिक ‘प्रोसेस्ड’ (संसाधित) भोजन—जो चीनी, नमक और वसा से भरपूर होते हैं—अक्सर सबसे सस्ते और आसानी से उपलब्ध होते हैं। ये खाद्य पदार्थ पोषक तत्वों में भले ही कम हों, लेकिन ये तुरंत संतुष्टि देते हैं।
इसके विपरीत, ‘शुद्ध’, ‘प्राकृतिक’, और ‘असली स्वाद’ वाला भोजन—जैसे ताज़े फल, जैविक सब्जियाँ, या पारंपरिक तरीकों से तैयार किए गए व्यंजन—अक्सर बहुत महंगे होते हैं। इस कारण, बेहतर स्वाद और उच्च पोषण वाले विकल्प मुख्य रूप से अमीरों की पहुँच तक सीमित हो जाते हैं। गरीब और निम्न-आय वर्ग के लोग अपनी आय का एक बड़ा हिस्सा खर्च किए बिना इन ‘असली स्वादों’ का अनुभव नहीं कर पाते। यह आर्थिक विभाजन न केवल पोषण, बल्कि सांस्कृतिक और स्वाद-आधारित अनुभवों में भी खाई पैदा करता है।
🥗 स्वास्थ्य बनाम स्वाद: संतुलन की ज़रूरत
एक आम और दुखद विरोधाभास यह है कि सबसे अच्छा स्वाद हमेशा स्वास्थ्यवर्धक नहीं होता, और इसके विपरीत, पोषण से भरपूर भोजन को अक्सर बेस्वाद या कम स्वादिष्ट मान लिया जाता है। इसका कारण खाद्य उद्योग द्वारा बनाए गए ‘हाइपर-पैलेटेबल’ (Hyper-palatable) खाद्य पदार्थ हैं, जो प्राकृतिक स्वाद को कृत्रिम मिठास और वसा से दबा देते हैं।
हमें इस धारणा को बदलना होगा। स्वाद और पोषण के बीच संतुलन बनाना आवश्यक है। यह संतुलन प्राकृतिक सामग्री पर ध्यान केंद्रित करके, जैसे ताज़े फल, सब्जियाँ, और साबुत अनाज, प्राप्त किया जा सकता है। मसालों और जड़ी-बूटियों का रचनात्मक उपयोग, और भोजन पकाने के स्वस्थ तरीकों (जैसे बेकिंग या स्टीमिंग) को अपनाकर, हम भोजन को पोषण के साथ-साथ स्वादिष्ट भी बना सकते हैं। असली स्वाद उसकी प्रामाणिकता में है, न कि उसकी कृत्रिमता में।
🙁 असंतोष का स्वाद
स्वाद के प्रति अत्यधिक आग्रह और हर चीज़ को ‘सबसे अच्छा’ होने की मांग ने एक नया असंतोष पैदा किया है। सोशल मीडिया और बाज़ारवाद ने हमारे मन में यह धारणा बिठा दी है कि हमें लगातार सर्वश्रेष्ठ (Elite) और अद्वितीय (Unique) स्वाद का अनुभव मिलना चाहिए।
जब हम हर बार ‘Bliss Point’ या ‘दुनिया के सर्वश्रेष्ठ’ भोजन की तलाश करते हैं, तो साधारण, घर का बना या रोज़मर्रा का भोजन फीका लगने लगता है। यह निरंतर तुलना और अति-उम्मीद हमें वर्तमान भोजन के सरल आनंद से वंचित करती है। परिणाम यह होता है कि हम हमेशा ‘अगले सर्वश्रेष्ठ स्वाद’ की तलाश में रहते हैं, और यह दौड़ अंततः स्थायी असंतोष और साधारण खुशियों की अनदेखी की ओर ले जाती है।
5. ✨ असली स्वाद की पहचान
हमें स्वाद के असली मूल्य को फिर से पहचानना होगा, जो कि उपभोक्तावाद और दिखावे में खो गया है। स्वाद केवल जीभ पर मीठे-नमकीन का अनुभव नहीं है, बल्कि यह हमारी सांस्कृतिक गहराई को दर्शाता है—हमारे पारंपरिक व्यंजनों की कहानी। यह हमारे पोषण और स्वास्थ्य से जुड़ा है। सबसे बढ़कर, यह मेज पर साझा किए गए सामुदायिक अनुभव और संबंधों को दर्शाता है। असली स्वाद की विजय तभी होगी जब हम ‘कैमरे’ की भूख को छोड़कर, अपनी जड़ों और भोजन के प्रति सचेत और आभारी होंगे।
🌟 असली स्वाद की पुनर्रचना
स्वाद की सच्ची विजय तभी संभव है जब हम दिखावे की भूख को छोड़कर अपनी सांस्कृतिक जड़ों को महत्व दें। हमें अपनी मेज पर मौजूद भोजन के प्रति सचेत और आभारी होना सीखना होगा, न कि केवल उसे फ़ोटो खींचने का माध्यम समझना। यह बदलाव मांगता है कि हम केवल ‘खाने’ की जल्दबाजी को छोड़कर, ‘स्वाद लेने’ की कला को पुनर्जीवित करें। यही जागरूकता हमें स्वास्थ्य, संस्कृति और वास्तविक संतोष की ओर ले जाएगी।
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EDITORIAL-8
EDITORIAL-7: मनरेगा के ‘अदृश्य योद्धा’ मूक संघर्ष और सरकारी उपेक्षा



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