EDITORIAL-7:मनरेगा के ‘अदृश्य योद्धा’ मूक संघर्ष और सरकारी उपेक्षा
🔥 ‘अदृश्य योद्धा’: मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम) भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था की वह जीवन रेखा है, जिस पर लाखों ग्रामीणों का जीवन निर्भर करता है। इस विशाल योजना की सफलता की नींव पर दिन-रात मेहनत करने वाला एक वर्ग है— संविदा तकनीकी सहायक। विडंबना यह है कि जो वर्ग गाँव की प्रगति की रीढ़ है, उसकी अपनी ज़िंदगी, अपने सपने और अपने परिवार की ज़रूरतें अक्सर अधूरी रह जाती हैं। उनका जीवन एक मूक संघर्ष बन चुका है, जिसे सरकार और समाज दोनों ने जानबूझकर अनदेखा कर दिया है।
1. कम वेतन, अनिश्चितता और जीवनयापन का निरंतर संघर्ष : संविदा तकनीकी सहायक का संघर्ष सिर्फ़ कम वेतन का नहीं, बल्कि अनिश्चितता का है। महीने के अंत तक जो थोड़ी-सी तनख्वाह आती है, वह इस महंगाई में घर का चूल्हा, बच्चों की पढ़ाई, माता-पिता की दवाइयाँ और रोज़मर्रा के खर्च पूरे नहीं कर पाती। यह एक निरंतर चलने वाला संघर्ष है जहाँ परिवार की छोटी-छोटी ज़रूरतें भी पहाड़ जैसी लगती हैं।
* दवा और दूध में चुनाव: यह विडंबना हृदय विदारक है कि एक तकनीकी सहायक को कई बार दवा और दूध में से किसी एक को चुनना पड़ता है।
* त्योहारों की उदासी: त्योहारों में जब बाकी दुनिया खुशियाँ मनाती है, तकनीकी सहायक अपने बच्चों का मुरझाया हुआ चेहरा देखता है, यह सोचकर कि वह उन्हें अन्य बच्चों की तरह पटाखे या मिठाई जैसी छोटी खुशियाँ भी नहीं दे सकता।
* स्वास्थ्य का डर: उन्हें हर वक्त यह डर सताता रहता है कि माँ, पिता, बच्चे या पत्नी में से कोई भी बीमार हुआ, तो इस महंगाई में अस्पतालों का खर्च कैसे वहन होगा। न स्थायी सेवा का भरोसा है, न भविष्य की सुरक्षा।
2. ज़िम्मेदारी चौबीस घंटे, लेकिन सम्मान शून्य : संविदा तकनीकी सहायक का कार्यक्षेत्र सुबह से शुरू होकर देर रात तक चलता है। वे सिर्फ़ दफ्तर में बैठकर रिपोर्ट नहीं बनाते। उनका दिन खेत-खलिहानों में काम के मुआयना, नाप-जोख, योजनाओं की रिपोर्टिंग, फोटोग्राफ लेना और पोर्टल पर एंट्री करने में बीतता है।
* छुट्टी नहीं, कोई विश्राम नहीं: उनके लिए कोई छुट्टी नहीं होती। त्योहारों में भी वही सरकारी काम और वही जिम्मेदारी। जब बाकी कर्मचारी परिवार संग छुट्टी मनाते हैं, तब यह सहायक धूप-बरसात की परवाह किए बिना फील्ड में डटा रहता है। घर लौटकर भी चैन नहीं—रिपोर्ट और अगले दिन का प्लान दिमाग में घूमता रहता है।
* काम रुका, तो ज़िम्मेदारी उसी पर: बीमारी की हालत में भी छुट्टी लेना मुश्किल है, क्योंकि अगर काम रुका तो जवाबदेही उसी की होगी। इतने समर्पण के बावजूद, इन संविदा कर्मियों को न उचित वेतन मिलता है, न उचित सम्मान।
3. प्रशासनिक उपेक्षा और राजनीतिक गलियारों में दबी आवाज़ : इस संघर्ष का सबसे दुखद पहलू यह है कि यह वर्ग प्रशासनिक उपेक्षा और राजनीतिक उदासीनता का शिकार है। ये तकनीकी सहायक पूरे ईमान और लगन से ग्रामीण विकास की नींव को मजबूत करते हैं, लेकिन उनकी अपनी आवाज़ राजनीतिक गलियारों में दब सी गई है।
* नोचने की प्रवृत्ति: कार्यकारी प्रदेश अध्यक्ष शिवेंद्र प्रताप सिंह का यह आरोप गंभीर है कि चाहे प्रशासन हो या शासन, हर कोई इस वर्ग को “नोचने को तैयार है”। उनके साथ काम करने वाले भी सहयोग नहीं करते, बल्कि समस्या को सुलझाने के बजाय उसे और बढ़ाने की कोशिश करते हैं।
* प्रशासनिक आत्मा की बिक्री: यह आलोचना प्रशासनिक अधिकारियों पर सीधा प्रहार है कि जो लोग समाज को बदलने की कसम खाकर आते हैं, वे पद पर काबिज़ होते ही अपनी आत्मा बेच दे रहे हैं और “अंग्रेज और गुलाम के नियम” को निभा रहे हैं। वे दबे-कुचले समाज की आवाज़ बनने के अपने मुख्य उद्देश्य को भूल चुके हैं।
4. समाधान और न्याय की माँग: अब चाहिए मानवीय संवेदना : आज ज़रूरत है कि सरकार और समाज, इन कर्मियों के त्याग और समर्पण को समझे। जो लोग गांवों को रोशन रखने में दिन-रात मेहनत करते हैं, उन्हें भी स्थिरता और सम्मानपूर्ण जीवन का अधिकार मिले।
* स्थायीकरण और उचित वेतन: सरकार को तुरंत प्रभाव से संविदा तकनीकी सहायकों की सेवा को स्थायी करने और उन्हें उनके काम के अनुरूप उचित वेतनमान देने की दिशा में कदम उठाना चाहिए।
* मानवीय दृष्टिकोण: प्रशासन को अपनी पद की गरिमा को बरकरार रखते हुए, इन दबे हुए लोगों की आवाज़ बनकर निस्वार्थ भाव से काम करना चाहिए।
* अंधेरा कब छंटेगा?: संविदा तकनीकी सहायक सिर्फ एक कर्मचारी नहीं, बल्कि वो अदृश्य योद्धा है, जो दूसरों की खुशहाली के लिए अपनी खुशियाँ कुर्बान करता है। अब समय आ गया है कि उनके जीवन से यह काला अंधियारा छंटे और उन्हें सम्मानजनक जीवन जीने का मौका मिले।
यह सरकार की नैतिक और प्रशासनिक ज़िम्मेदारी है कि वह इस वर्ग के संघर्ष को खत्म करे।
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